कुछ इस तरह मेरा मन इसको दुआ देता है,
ज़कह्म कैसा भी वो मलहम लगा देता है,
कहाँ मिलती है अब ऐशी फितरत ज़माने मई
कुछ भी कोई करे तो एक पल में जता देता है
घर बनाने का सपना सा ही देखा था मैंनें
की ज़माना मेरा घर आधियों में बनवा देता है
मन मेरा भी था की मई भी हस लू अपनों के साथ,
जब भी हँसा कोई न कोई नज़र लगा देता है,
पी लिया कुछ जा कर तो मन को सुकून आया तो है,
अच्छा है, ये दवा है की हर गम भुला देता है.
अतुल कुमार मिश्रा (चंचल जी)
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